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Abstract

हाल के वर्षो में, भारत मंे प्रर्यावरण दुर्दशा के स्वरूपों के प्रति जनचेतना में एक असाधारण वृद्धि हुई है। यह एक आश्चर्यजनक एवं स्वागतयोग्य परिवर्तन है जो एक ओर पर्यावरण के प्रति लोक-जागरूकता को प्रभावशाली मीडिया कवरेज द्वारा प्रदर्शित कर रहा है तथा दूसरी ओर नये सरकारी-तत्रों के गठन एवं पर्यावरणीय प्रबन्धन के विभिन्न आयामों के प्रति जन-चेतना जाग्रत कर रहा है। विश्व में यह जगह, स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक संसाधनों का यह अवक्षय लधु-कालिक विकासात्मक क्रियायें राज्य-प्रणाली का एक आधुनिक स्वरूप हैं। राज्य द्वारा शुरू किये गये विकास से प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक शोषण हो रहा है तथा उसके विरोध में आवाज उठाने के लिये स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक लोगों ने स्वंय को संगठित किया। यद्यपि प्रारम्भिक समय में इन आवाजों को उतना महत्व नहीं मिला, लेकिन हाल में बाहरी एजेन्सीज जैसे कि मीडिया, नागरिक समाज और सामाजिक कार्यकर्ता वर्ग ने इस मुददे का बहुत गम्भीरता से सार्वजनिक चर्चा में शामिल किया जिससे इन मुददों को संवेदनशीलता प्राप्त हुई। ये जो आवाजें उठी इनके द्वारा प्राकृतिक संसाधनों को पुनः स्थापित करने के लिये प्रयास एवं विकास तथा आधुनिकीकरण के वैकल्पिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति के साथ-साथ सामाजिक आन्दोलन के संस्थाकरण का जन्म हुआ। प्रजातीय, वर्ग, लिंग-विभेद पर आधारित सामाजिक आन्दोलन की परम्परागत श्रेणियों से हटकर पर्यावरण को नव-सामाजिक आन्दोलन द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र में एक नयी परिचर्चा के रूप में स्थान मिला जिसके द्वारा वर्ग, वर्ण तथा लिंग से हटकर एक समान मुददा-’हमारे पर्यावरण की रक्षाके आधार पर विश्व के विभिन्न हिस्सों से लोग आकर्षित हुये।

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